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घर या पिंजरा - घरेलू हिंसा के ख़िलाफ़ एक आवाज़

है दिल में दर्द कितना उसकी नज़रें बता देती है,

शायद इसी डर से वो ज़माने से नज़रें चुरा लेती है।


ठीक उसी तरह जैसे छुपाती है दुपट्टे से 'जला हाथ',

जैसे ढक लिया करती है पल्लू से,

चाँद से चेहरे पर लगे दाग।


करती है सभी नियम- धर्म का पालन,

नन्ही सी उम्र में पतिव्रता बनती है,

मांगती है उसकी लंबी उम्र की दुआ,

जिस व्यक्ति से वो प्रेम तक नही करती है।


कभी सोचती हूँ किसके लिए सहती है इतना?

क्यों आवाज़ उठाने से डरती है!

किस समाज की लाज में खुद को ही समझ लिया करती है।


कभी ज़ुर्रत करने का जी होता है,

सोचती हूं छुड़ा दूँ उसका ये पिंजरा

जिसे वो 'घर' समझती है,

दिखा दूँ आज़ादी के सपने,

चखा दूँ आत्मनिर्भरता की हवा,

पर क्या वो भी 'इंकलाब' की हिम्मत रखती है?!


क्या करूँगी गर झिड़क देगी मुझे,

नहीं सोच पाएगी बंदिशो के परे,

कैसे आएगा बदलाव,

कैसे आएगा बदलाव?!


जब शक्ति ,स्वयं ही प्रताड़नाओ के बीच ,

बैठी है ,हाथों पे हाथ धरे!

 
 
 

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©Wordcraft, The Literary Society, Ramjas College, University of Delhi

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