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दीप शृंखला

जिसको अग्नि से नही, आशाओं से जलाया जाता था। अंधकार प्रांगण को नवीन उजाला दिया जाता था। दीवार तो एक थी, मगर कतारबद्ध रोशनी से, ईंटों के घेरे को दीयों का मुकुट पहनाया जाता था।


माटी से निर्मित उस वस्तु को कोमल करों पर उतारा जाता था। सूखी सुकुमार उस सुतली को, घी से भिगोया जाता था। लगती आग तो किसी एक पर थी, परंतु सम्पूर्ण घर उज्ज्वल हो उठता था।


उजालित प्रांगण तो आज भी है, परंतु उन दीयों को प्रज्वलित करने वाले हस्त खो गए। प्रकाशित दीवार तो आज भी टहरी है, बस वक़्त बदल गया

 
 
 

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©Wordcraft, The Literary Society, Ramjas College, University of Delhi

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