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शराब

दीपक सिंह

शराब!

शराब सदैव बच्चन की मधुशाला नही होती।

शराब सदैव एक सुंदर सजा प्याला नही होती।

शराब किसी बोतल मे भरा जहर भी होती है।

शराब इंसान का खुदपर ढाया कहर भी होती है।



शराब!

शराब माना की सारे दुख दर्द भुला देती है।

बेचैनी भरी रातों मे चैन से सुला देती है।

परंतु ये ना भूलो कितने रिश्ते भुलाये है इसने,

बिन माचिस कितने घर जलाये है इसने।



शराब!

छोटी उम्र मे बच्चे जब शराबी होने लगते है,

होश संभलने की उम्र मे बेहोश होने लगते है।

बंद बुद्धि मे तब हर काम अच्छा लगता है,

जो पिला दे दो जाम वही यार सच्चा लगता है।


शराब!

शराब की एक घूँट न जाने,

कितने घरों को पी गयी।

बाप उड़ाता रहा नशे मे,

बेटी जवान हो गयी।



शराब!

माना कि दो पैसे की पी लेने मे हर्ज क्या है,

कमाई बस दो पैसा हो, इससे बड़ा मर्ज़ क्या है?

ऐसा भी नही की पैसा होने पर पी सकते है,

टूटे रिश्ते, मरी आत्मा, खोखले तन संग जी सकते है?



शराब!

अमीरी अपने ऐब छुपा लेती है ।

गरीबी तन ढकने को तरसती है।

शराब जान होती है अमीर महफिलों की,

शराब गरीब की रोटी ले डूबती है।


 
 
 

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©Wordcraft, The Literary Society, Ramjas College, University of Delhi

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