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अपनी बात

ये गलियां ये बस्ती दुबकती दीवारें ,

दिशाओं में गूंजते रुदन सी नजारें ,

यूं जुगनू सितारों से महफिल सजी है ,

फिर भी कुहाॅसो से सीटी बजी है ,

इस शंका आशंका में किस्में मिलावट ,

लगता है जीने की इच्छा जगी है ।


इस बलिदान की है एेसी आहुति ,

स्वाति लिए सीप हो जाए मोती ,

इधर से उधर को जिधर से जिधर को ,

मानो वह दुबकी सी रोती खड़ी है ।


नदियों ने कह दी समंदर से मिलकर ,

आओ बह चलें संग फिर साथ होकर ,

ये मिलना मिलाना और चुंबन - आलिंगन ,

देखो उम्मीदों की लड़ी जड़ी है ।


न एहसास तुमको तनिक भी है मेरा ,

बता दूं तुझे तेरी खोजी का फेरा ,

यूं चलने में भी आ जाती क्यों रुकावट ,

जबकि मुझे तुमसे मिलना जरू है ।


ये शहरों की रौनक मुबारक तुम्हीं को ,

उस उजड़ी सी बस्ती की आदत है मुझको ,

पता ही नहीं था कहां हम मिलेंगे ,

मिलने - मिलाने की मुश्किल खड़ी है।



 
 
 

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©Wordcraft, The Literary Society, Ramjas College, University of Delhi

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